बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर -
कान्ट का नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त इसका वर्णन निम्नलिखित है-
(1) कान्ट के नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त को कर्तव्या कर्त्तव्य का सिद्धान्त भी कहते हैं।
(2) इस सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु अनुभव, भावना या कर्म का लक्ष्य नहीं बल्कि विशुद्ध कर्त्तव्य अर्थात् कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य है।
(3) कान्ट कहते हैं कि हमें कई कर्म इसीलिए नहीं करने चाहिए कि उससे हमें सुख मिलता है बल्कि कर्म को कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए।
(4) कान्ट के अनुसार, नैतिक नियम निरपेक्ष आदेश हैं, इन नियमों का पालन बिना किसी शर्त के होना चाहिए।
(5) कान्ट का मत है कि व्यवहारिक बुद्धि / अन्तःकरण पर अपने आप लागू किए जाने वाले नैतिक नियम ही निपेक्ष आदेश हैं।
(6) इन नियमों का पालन बिना किसी फल की आशा के करना चाहिए। ये नियम स्वयं साध्य हैं, न कि किसी अन्य लक्ष्य के साधन।
(7) कान्ट के निरपेक्ष आदेश में भावना, इच्छा, लिप्सा, आकांक्षा, वासना आदि का कोई महत्व नहीं है। कान्ट सदैव दमन का आदेश देते हैं।
(8) कान्ट सुखवादियों के मत का घोर खण्डन करते हैं कि सुख प्राप्ति और दुःख निवारण के लिए कर्म करना चाहिए।
(9) कान्ट के अनुसार "कर्म करना हमारा धर्म है", निष्काम कर्म ही हमारा आदर्श है।
(10) कर्म को कर्तव्य के रूप में ही करना चाहिए इसके परिणाम पर विचार नहीं करना चाहिए।
कान्ट ने तीन सूत्र दिए हैं -
(a) केवल उसी सिद्धान्त के अनुसार काम करें, जिसकी इच्छा आप उसी समय सार्वभौमिक नियम बन जाने पर कर सकते हैं।
(b) ऐसा कर्म करें कि मानवता चाहे आपके अन्दर हो या दूसरे के अन्दर, सदैव साध्य बनी रहे, साधन नहीं।
(c) प्रत्येक व्यक्ति एक साध्य है, किसी को साधन नहीं कहा जा सकता। विवेक सभी में समान रूप से निहित है, इसलिए सबका मूल्य बराबर है। साम्राज्य में न कोई राजा है न कोई प्रजा।
(11) कान्ट के निरपेक्ष आदेश के आधार पर डब्ल्यू डी. रॉस ने कुछ मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लेख किया है-
• सत्य बोलना चाहिए।
• किसी के साथ हुए अन्याय को समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
• न्यायपूर्वक कर्म करने चाहिए।
• दूसरों की मदद करनी चाहिए।
• दूसरों को शारीरिक चोट नहीं पहुँचानी चाहिए।
• दूसरों को धन्यवाद देना चाहिए।
(12) कान्ट के अनुसार, हमें नैतिक भावनाओं पर कभी नैतिकता को आधारित नहीं करना चाहिए, ये भावनाएँ हमारे तर्कों के दोष लाती हैं। इसीलिए हमें सदैव भावनाओं पर नियन्त्रण रखते हुए केवल बुद्धि के आदेश के अनुसार ही कर्म करने चाहिए।
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